वीरवर बल्लु जी चम्पावत जिनकी मुंछ के बाल की किमत RBI गर्वनर के वचन से ज्यादा थी
वीरवर बल्लु जी चंम्पावत (नागौर) की वीर गाथा
इतिहास का ऐसा एकमात्र महान वीर योद्धा जिसने जन्म एक बार लिया लेकिन वीरगति दो बार प्राप्त की और अन्तिम संस्कार तीन बार किया हुआ।सबसे खास बात यह की इनकी मुछ के बाल की कीमत RBI गर्वनर के हस्ताक्षर से ज्यादा थी ।
कमधज बल्लू युं कहे,सोहे सूणो सिरदार।
बैर अमररा बालस्या,मुगला हुनै मार ।।
कमधज्जा ईसड़ी करौ,रहै सुरज लग नाम।
मुगला मारज्यो चापड़े,होय स्याम रो काम।।
अमलज पोधा राठवड़,हुआ सकल असवार ।
सीस जका ब्रहमंड आडे,बल्लु दी हलकार।।
बल्लु कहै गोपालरौ,सतिया हाथ संदैश ।
पतशाही धड़ मोड़ कर,आंवा छां अमरेस।।आज हम एक वीर योद्घा के विषय में चर्चा करना चाहेंगे। हमने पूर्व में अमरसिंह राठौड़ के पोस्ट में बल्लू जी चाम्पावत के विषय में लिखा था कि भारत का वह शेर किस प्रकार अमरसिंह राठौड़ के शव को मुगलों के कड़े पहरे में से निकालकर लाने में सफल हुआ था।बल्लूजी चाम्पावत के विषय में कहा जाता है कि जिस समय अमरसिंह राठौड़ की हत्या आगरा के दुर्ग में की गयी थी उस समय अमरसिंह राठौड़ और बल्लू चाम्पावत के मध्य गंभीर मतभेद थे। परंतु सच्ची वीरता कभी तुच्छता की ओर न तो ध्यान देती है और न तुुच्छता का प्रदर्शन करती है। वह तो सदा उत्कृष्टता में ही विचरण करती है और उसी में आनंदानुभूति करती है। इसलिए सच्ची वीरता में व्यक्तिगत मतभेद बहुत तुच्छ और नगण्य होते हैं।लोग ऐसे मतभेदों को राष्ट्र और समाज के हितों के समक्ष भूल जाने में तनिक सी भी देरी नही करते हैं। इसीलिए बल्लूसिंह चाम्पावत को जब यह ज्ञात हुआ कि अमरसिंह राठौड़ का शव आगरा दुर्ग में रखा है, और यदि उसे वहां लाया नही गया तो हिंदू समाज को भारी अपयश का सामना करना पड़ेगा। तब इस महान योद्घा ने अपने प्राणों की चिंता किये बिना अमरसिंह का शव लेकर आने का संकल्प लिया।राजस्थान के शूरमा' के लेखक तेजसिंह तरूण का कहना है कि-''अमरसिंह ने (नागौर) आते ही अपनी नई जागीर में मीढ़ों को एकत्र करना आरंभ कर दिया, चूंकि उसे मींढ़ों की लड़ाई देखने का बड़ा शौक था। इन मीढ़ों की देख रेख उसके सामंत बारी-बारी से किया करते थे। एक दिन जब बल्लू की बारी आयी तो उसने भरे दरबार में यह कह दिया कि राजपूत का काम मींढों की देखरेख करना नही है, उसका काम रणभूमि में कट मरना है मींढ़ें तो राह के छलावेे हैं। मैं ऐसे राजा के पास नही रहूंगा, जो राजपूतों से मीढ़ों की देखरेख करावे।''वास्तव में बल्लूसिंह की यह बात सच ही थी, जिसे साहस करके बल्लूसिंह ने कह दिया था। वह जानता था कि सच कहना तो सरल है पर सच को सुनना बड़ा कठिन है। इसलिए उसे यह भी ज्ञात था कि इस बात को सुनकर अमरसिंह राठौड़ पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। परंतु इसके उपरांत उसने अपने मन की बात कह दी। इससे उस स्वाभिमानी बल्लूसिंह चाम्पावत के स्वाभिमानी व्यक्तित्व का ज्ञान हमें होता है।बल्लूसिंह चाम्पावत ने उक्त घटना के पश्चात से नागौर को भी त्याग दिया। उसने नागौर से चलकर बीकानेर की ओर कूच किया। जब वह बीकानेर पहुंचा तो वहां के शासक ने उसका भव्य स्वागत सत्कार किया। जिससे वह बड़ा प्रसन्न हुआ। ठाकुर जसवंत सिंह शेखावत का कहना है-''बल्लू बीकानेर में आराम से दिन काट रहा था। बरसात के दिन बीत गये थे खेतों में कामड़ी-मतीरे खूब पके थे, बीकानेर महाराजा के टीकामत एक गोदारा परिवार के खेत से एक बड़ा मतीरा भेंट स्वरूप लाया। महाराजा ने सोचा मारवाड़ से आये सरदार बल्लू को यह मीठा मतीरा क्यों न भेजा जाए। अत: खास व्यक्ति के साथ मतीरा बल्लू के घर भेजा गया।'' बल्लू ने पूछा-'क्या लाये हो?'महाराज साहब ने आपके लिए मतीरा भेजा है। 'हूं-मतीरो, राजाजी मने अठै रेण नही देणो, इण वास्ते यो फलभेज नेकेवायो के मतीरो (अर्थात मत रहो) महारे तो पागड़े पग लिख्योड़ा है ऐ चाल्या।'यूं कहकर बल्लू वहां से चल पड़ा। उसे खूब समझाया कि महाराज का यह आशय कतई नही था। उन्होंने तो प्रेम से भेंट स्वरूप भेजा है। पर अंटीला राजपूत चल पड़ा, सो चल पड़ा। पीछे मुडक़र नही देखा, स्वाभिमानी जो था।बल्लूसिंह चाम्पावत ने राजा द्वारा अपने लिए मतीरा भेजा जाना अपमानजनक समझा। उसे राजा का यह कृत्य उचित नही लगा। इसलिए उसने कह दिया कि राजा संभवत: मुझे यहां रहने देना नही चाहता, इसलिए मैं अब यहां से चल देता हूं। हो सकता है कि बल्लूसिंह ने राजा का अपने प्रति कोई अन्य कृत्य पूर्व में ही ऐसा देख लिया हो जो उसकी गरिमा के अनुकूल ना हो। इसलिए मतीरा को उसने अपने सम्मान के साथ जोड़ लिया। परिणामस्वरूप वहां से भी वह चल पड़ा।कष्ट उठाते-उठाते चाम्पावत पहुंचा अपने गांव देशधर्म के दीवाने और राष्ट्रभक्ति की उदात्त भावनाओं के जीते जगाते प्रमाण बल्लूसिंह ने नागौर से बीकानेर आकर शरण ली थी। पर अब उसे बीकानेर में भी नही रूकना था। इसलिए वहां से चलकर बल्लूसिंह चाम्पावत अपने गांव हरसोलाव में आकर रूका। उसकी देशभक्ति की कहानियों को अब तक उसके पैत्रक गांव के लोगों ने सुना ही था, पर अब तो वह स्वयं ही लोगों के मध्य आ खड़ा हुआ था। लोगों को अपने गांव की मिट्टी के रजकणों में खेले गये बच्चे को जब एक शूरवीर से नायक के रूप में अपने मध्य खड़ा पाया था तो उन्हें भी असीम प्रसन्नता हुई। लोगों में कौतूहल था, जिज्ञासा थी, प्रसन्नता थी अपने नायक से प्रेरणा पाकर वैसा ही बनने और वैसा ही करने की एक लगन थी।जब बल्लूसिंह चाम्पावत अपने गांव में आया तो उसे यहां भी एक चिंता ने घेर लिया। देशधर्म के दायित्वों का निर्वाह करने वाली विभूतियों को अक्सर अपने घर की चिंता नही रहती है, या इसे इस प्रकार कहिये कि वे अपने घर की ओर ध्यान नही दे पाते हैं। जब ध्यान देते हैं तो अक्सर किसी बड़े दायित्व के निर्वाह के लिए उन्हें अपना कत्र्तव्य स्मरण हो आता है। बल्लूसिंह चाम्पावत के साथ भी यही हुआ। अपने गांव हरसोलाव आकर इस शूरवीर ने देखा कि उसकी पुत्री विवाह योग्य हो गयी है। इसलिए उसने अपनी प्रिय पुत्री का विवाह कर देने का मन बनाया। परंतु उसके पास विवाह के लिए आवश्यक और अपेक्षित धन की कमी थी। तब उस स्वाभिमानी बल्लूसिंह ने एक सेठ के यहां अपनी मूंछ का एक बाल गिरवी रखकर उससे अपनी पुत्री के विवाह के लिए अपेक्षित धन प्राप्त किया और पुत्री के विवाह के दायित्व से वह मुक्त हो गया।पुत्री के विवाह के दायित्व से मुक्त होकर बल्लूसिंह सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा। पर विधि का विधान तो कुछ और रचा-बना पड़ा था, इसलिए हो सकता है कि विधि के विधान ने ही उसे अपनी पुत्री के ऋण से पहले मुक्त कर तत्पश्चात मातृभूमि के ऋण से मुक्त करने का ताना-बाना बुना हो ।अमर सिंह की रानी ने जब ये समाचार सुना तो सती होने का निश्चय कर लिया, लेकिन पति की देह के बिना वह वो सती कैसे होती। रानी ने बचे हुए थोड़े राजपूतों सरदारो से अपनें पति की देह लाने को प्रार्थना की पर किसी ने हिम्मत नहीं कि और तब अन्त में उनको अमरसिंह के परम मित्र बल्लुजी चम्पावत की याद आई और उनको बुलवाने को भेजा !चाम्पावत ने मुगल अमरसिंह राठौड़ के शव को कौन शेर आगरा के किले से उठाकर लाये? यह प्रश्न उस समय हर देशभक्त के लिए जीवन मरण का प्रश्न बन चुका था। पूरे हिंदू समाज की प्रतिष्ठा को मुगल बादशाह ने एक प्रकार से चुनौती दी थी कि जिसकी मां ने दूध पिलाया हो वह आये और अपने देश-धर्म के रक्षक अमरसिंह राठौड़ के शव को ले जाए। बादशाह की इस चुनौती में अहंकार भी था और हिंदू समाज के प्रति तिरस्कार का भाव भी था।अमरसिंह राठौड़ का शव दुर्ग के भीतर रखा था, मुख्य द्वार पर और किले की दीवारों पर सुरक्षा व्यवस्था इतनी कड़ी थी कि दुर्ग में कोई पक्षी भी पर नही मार सकता था। इसलिए हिंदू समाज में अपने शूरवीर के शव को लेकर बड़ी बेचैनी थी, और सभी को यह लग रहा था कि चाहे जो हो जाए-पर मां के स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा हर स्थिति परिस्थिति में होनी चाहिए।इस स्वाभिमान और सम्मान की सुरक्षार्थ हिंदू ध्वज रक्षकों की खोज का अभियान चल पड़ा। तब उस अभियान के अंतर्गत एक सैनिक अचानक अमरसिंह राठौड़ की पाग लेकर बल्लूसिंह चम्पावत के पास आ धमका।उसने बल्लूसिंह चम्पावत को यह भी बताया कि अमरसिंह राठौड़ का शव आगरे के दुर्ग में रखा है और उसे लाकर उसका अंतिम संस्कार किया जाना हिंदू समाज के सम्मान और आर्य धर्म की प्रतिष्ठा के दृष्टिगत आवश्यक है।सैनिक कहे जा रहा था कि इस समय इस कठिन कार्य को सफलतापूर्वक परिणति तक पहुंचाना आप जैसे शूरवीरों का ही काम है। आपके रहते हमें नही लगता कि मां भारती की गोद शूरवीरों से रिक्त है, आप हैं तो मां भी प्रसन्न है और हम भी प्रसन्न हैं, क्योंकि आपके रहन्ते हमें किसी प्रकार की कोई चिंता नही है।बल्लूजी चाम्पावत ने जैसे ही यह दुखद समाचार सुना तो वह सन्न रह गया। अमरसिंह राठौड़ जैसे शूरवीर योद्घा के समय मुगल बादशाही का ऐसा क्रूरतापूर्ण कृत्य सुनकर चाम्पावत का चेहरा तमतमा गया। उसने आसन्न संकट का सामना करने और मां भारती की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का निश्चय किया।सैनिक से अमरसिंह राठौड़ का दुखद समाचार पाते ही बल्लू चाम्पावत के हृदय में देशभक्ति और स्वामी भक्ति की सूनामी मचलने लगी, उसकी भुजाएं फडक़ने लगीं, उसे विश्वास नही हो रहा था कि ऐसी घटना और वह भी अमरसिंह राठौड़ के साथ हो सकती है? उसने बिना समय खोये निर्णय लिया, तलवार उठायी और एक योद्घा की भांति मां भारती के ऋण से उऋण होने का संकल्प लेकर चल दिया। पर यह क्या? अभी अमरसिंह ने एक पग ही रखा था कि बाहर से एक सेवक दौड़ा हुआ आया। उसने बल्लू चाम्पावत से कहा कि ''महोदय मेवाड़ के महाराणा ने आपको स्मरण करते हुए एक घोड़ा भेंट स्वरूप आपकी सेवा में भेजा है।''बल्लू चाम्पावत की आर्थिक स्थिति उस समय अच्छी नही थी। उसने जब यह समाचार सुना कि मेवाड़ के महाराणा ने एक घोड़ा उसके लिए भेजा है तो उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई, क्योंकि जिस मनोरथ के लिए वह निकल रहा था-उसके लिए घोड़े की नितांत आवश्यकता थी। इसलिए बल्लू चाम्पावत को लगा कि महाराणा के द्वारा भेजे गये घोड़े की शुभसूचना उसी समय मिलना जब इसकी आवश्यकता थी-निश्चय ही एक शुभ संयोग है। उसने अपने लक्ष्य की साधना के लिए मेवाड़ी घोड़े का ही प्रयोग करने का निर्णय लिया। उसके मेवाड़ से आये व्यक्ति को ससम्मान अपने प्रयोजन की जानकारी देकर बताया कि महाराणा जी से हमारा प्रणाम बोलना और उन्हें हमारी विवशता की जानकारी देकर यह भी बता देना कि बल्लू चाम्पावत यदि अपनी लक्ष्य साधना में सफल होकर जीवित लौट आया तो आपके चरणों में उपस्थित होकर अवश्य ही भेंट करेगा और यदि नही लौट सका तो भी संकट के समय अवश्य ही उपस्थित होऊंगा।चल दिया महान लक्ष्य की ओरअब बल्लू चाम्पावत की दृष्टि में केवल आगरा दुर्ग चढ़ चुका था, उसे एक पल भी कहीं व्यर्थ रूकना एक युग के समान लग रहा था। इसलिए बिना समय गंवाये वह आगरा की ओर चल दिया। उसके कई साथी उसके साथ थे। घोड़ों की टाप से जंगल का एकांत गूंजता था। मानो भारत के शेर दहाड़ते हुए शत्रु संहार के लिए सन्नद्घ होकर चढ़े चले जा रहे थे। शत्रु निश्चिंत था। उसे नही लग रहा था कि कोई 'माई का लाल' अमरसिंह राठौड़ के शव को उठाकर ले जाने में सफल भी हो सकता है? यद्यपि बादशाह के सैनिक अमरसिंह राठौड़ के शव की पूरी सुरक्षा कर रहे थे और अपने दायित्व का निर्वाह पूर्णनिष्ठा के साथ कर रहे थे। फिर भी उनमें निश्चिंतता का भाव था, उनके भीतर यह भावना थी कि किले के भीतर आकर शव को उठाने का साहस किसी का नही हो सकता। बस, यह सोचना ही उनकी दुर्बलता थी और उनकी सुरक्षा व्यवस्था का सबसे दुर्बल पक्ष भी यही था।अमरसिंह राठौड़ का शव दुर्ग के बीचों-बीच रखा था। उधर बल्लूजी चाम्पावत तीव्र वेग के साथ किले की ओर भागा आ रहा था। उसके दल के घोड़ों के वेग के सामने आज वायु का वेग भी लज्जित हो रहा था। हवा आज उसका साथ दे रही थी और बड़े सम्मान के साथ उसे मार्ग देती जा रही थी।अचानक मुगल सैनिकों को लगा कि एक तीव्र वायु का झोंका उनके दुर्ग के द्वारों को धक्का देकर भीतर प्रवेश कर गया है। इससे पूर्व कि वह उस वायु के वेग को समझ पाते कि यह कोई हवा ना होकर मां भारती का सच्चा सपूत बल्लूसिंह चाम्पावत है, बल्लू अपने स्वामी के शव के पास मुगल सैनिकों को चकमा देकर दुर्ग में प्रवेश कर चुका था। मुगल सैनिक दुर्ग में उसके प्रवेश की कहानी को समझ नही पाये और इससे पहले कि वह उसे शव के पास घेर पाते भारत का यह शेर अपने स्वामी को एक झटके के साथ उठाकर अपने घोड़े सहित दुर्ग की दीवार की ओर लपका। मुगल सैनिकों ने दुर्ग के द्वार की ओर मोर्चा लेना चाहा, पर बल्लू दुर्ग के द्वार की ओर न बढक़र किले की दीवार पर घोड़े सहित जा चढ़ा और मुगलो को काटते हुए वहां से उसने घोड़े को नीचे छलांग लगवा दी।यह दृश्य देखकर मुगल बादशाह के मुंह से निकल पड़ा :-या तो यह अल्लाह है या शैतान है वैसे देखा जाये तो अल्लाह सै तो महान ही थे बल्लुजी ।अपने साथियों सहित शव को नागौर लाने में सफल रहा।इस कहानी को कुछ लोगों ने इस प्रकार भी कहा है कि राठौड़ के शव को तो बल्लू ने अपने सैनिकों को दे दिया और वो किले के अन्दर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त हो गये।सती ने बल्लू जी को आशीर्वाद दिया- 'बेटा ! गौ,ब्राह्मण,धर् म और सती स्त्री की रक्षाके लिए जो संकट उठाता है, भगवान उस पर प्रसन्न होते हैं। आपनें आज मेरी प्रतिष्ठा रखी है। आपका यशसंसार में सदा अमर रहेगा।' बल्लू चम्पावत मुसलमानों से लड़ते हुवे वीर गति को प्राप्त हुवे उनका दाहसंस्कार यमुना के किनारे पर हुआ उनके और उनके घोड़े की याद में वहां पर स्म्रति स्थल बनवाया गया जो अभी भी मौजूद है !जैसा इसी आलेख में है की बल्लूजी के पास जो धोड़ा था जो मेवाड़ के महाराणा ने भेंट किया था तब बल्लूजी ने उनसें वादा किया की जब भी आप पर कोई विपति आये तो बल्लू को याद करना मैं हाजिर हो जाऊंगा उस के कुछ वक्त बाद में मेवाड़ पर ओरेंगजेब ने हमला कर दिया तो महाराणा ने उनको याद किया और हाथ जोड़कर निवेदन किया की है बल्लूजी आज मेवाड़ को आपकी जरुरत है ! तभी जनसमुदाय के समक्ष उसी घोड़े पर बल्लूजी दिखे और देबारी की घाटी में मेवाड़ की जीत हुई ! बल्लूजी उस युद्ध में दूसरी बार काम आ गए ! देबारी में आज भी उनकी छतरी बनी हुई है ! बल्लूजी ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए लाडनूं के एक बनिये से कुछ कर्ज लिया इसके बदले में उन्होंने अपनी मूछ का बाल गिरवी रखा जो जीते जी वो छुड़ा नही सके परन्तु उनकी छः पीढ़ी बाद में उनके वंसज हरसोलाव के ठाकुर सूरतसिंह जीने छुड़ाकर उसका विधि विधान के साथ दाह संस्कार करवाया और सारे बल्लुदासोत चम्पावत इकठे हुए और सारे शौक के दस्तूर पुरे किये ! इस तरह एक राजपूत वीर दो बार शहीद हुए तीन बार दाह संस्कार हुआ जो हिन्दुस्थान के इतिहास में उनके अलावा कही नही मिलता !!(काश कोई इस तरह की सच्ची घटनाओं पर फिल्में बनाता तो लोगों को सही इतिहास का पता चलता )
कमधज बल्लू युं कहे,सोहे सूणो सिरदार।
बैर अमररा बालस्या,मुगला हुनै मार ।।
कमधज्जा ईसड़ी करौ,रहै सुरज लग नाम।
मुगला मारज्यो चापड़े,होय स्याम रो काम।।
अमलज पोधा राठवड़,हुआ सकल असवार ।
सीस जका ब्रहमंड आडे,बल्लु दी हलकार।।
बल्लु कहै गोपालरौ,सतिया हाथ संदैश ।
पतशाही धड़ मोड़ कर,आंवा छां अमरेस।।आज हम एक वीर योद्घा के विषय में चर्चा करना चाहेंगे। हमने पूर्व में अमरसिंह राठौड़ के पोस्ट में बल्लू जी चाम्पावत के विषय में लिखा था कि भारत का वह शेर किस प्रकार अमरसिंह राठौड़ के शव को मुगलों के कड़े पहरे में से निकालकर लाने में सफल हुआ था।बल्लूजी चाम्पावत के विषय में कहा जाता है कि जिस समय अमरसिंह राठौड़ की हत्या आगरा के दुर्ग में की गयी थी उस समय अमरसिंह राठौड़ और बल्लू चाम्पावत के मध्य गंभीर मतभेद थे। परंतु सच्ची वीरता कभी तुच्छता की ओर न तो ध्यान देती है और न तुुच्छता का प्रदर्शन करती है। वह तो सदा उत्कृष्टता में ही विचरण करती है और उसी में आनंदानुभूति करती है। इसलिए सच्ची वीरता में व्यक्तिगत मतभेद बहुत तुच्छ और नगण्य होते हैं।लोग ऐसे मतभेदों को राष्ट्र और समाज के हितों के समक्ष भूल जाने में तनिक सी भी देरी नही करते हैं। इसीलिए बल्लूसिंह चाम्पावत को जब यह ज्ञात हुआ कि अमरसिंह राठौड़ का शव आगरा दुर्ग में रखा है, और यदि उसे वहां लाया नही गया तो हिंदू समाज को भारी अपयश का सामना करना पड़ेगा। तब इस महान योद्घा ने अपने प्राणों की चिंता किये बिना अमरसिंह का शव लेकर आने का संकल्प लिया।राजस्थान के शूरमा' के लेखक तेजसिंह तरूण का कहना है कि-''अमरसिंह ने (नागौर) आते ही अपनी नई जागीर में मीढ़ों को एकत्र करना आरंभ कर दिया, चूंकि उसे मींढ़ों की लड़ाई देखने का बड़ा शौक था। इन मीढ़ों की देख रेख उसके सामंत बारी-बारी से किया करते थे। एक दिन जब बल्लू की बारी आयी तो उसने भरे दरबार में यह कह दिया कि राजपूत का काम मींढों की देखरेख करना नही है, उसका काम रणभूमि में कट मरना है मींढ़ें तो राह के छलावेे हैं। मैं ऐसे राजा के पास नही रहूंगा, जो राजपूतों से मीढ़ों की देखरेख करावे।''वास्तव में बल्लूसिंह की यह बात सच ही थी, जिसे साहस करके बल्लूसिंह ने कह दिया था। वह जानता था कि सच कहना तो सरल है पर सच को सुनना बड़ा कठिन है। इसलिए उसे यह भी ज्ञात था कि इस बात को सुनकर अमरसिंह राठौड़ पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। परंतु इसके उपरांत उसने अपने मन की बात कह दी। इससे उस स्वाभिमानी बल्लूसिंह चाम्पावत के स्वाभिमानी व्यक्तित्व का ज्ञान हमें होता है।बल्लूसिंह चाम्पावत ने उक्त घटना के पश्चात से नागौर को भी त्याग दिया। उसने नागौर से चलकर बीकानेर की ओर कूच किया। जब वह बीकानेर पहुंचा तो वहां के शासक ने उसका भव्य स्वागत सत्कार किया। जिससे वह बड़ा प्रसन्न हुआ। ठाकुर जसवंत सिंह शेखावत का कहना है-''बल्लू बीकानेर में आराम से दिन काट रहा था। बरसात के दिन बीत गये थे खेतों में कामड़ी-मतीरे खूब पके थे, बीकानेर महाराजा के टीकामत एक गोदारा परिवार के खेत से एक बड़ा मतीरा भेंट स्वरूप लाया। महाराजा ने सोचा मारवाड़ से आये सरदार बल्लू को यह मीठा मतीरा क्यों न भेजा जाए। अत: खास व्यक्ति के साथ मतीरा बल्लू के घर भेजा गया।'' बल्लू ने पूछा-'क्या लाये हो?'महाराज साहब ने आपके लिए मतीरा भेजा है। 'हूं-मतीरो, राजाजी मने अठै रेण नही देणो, इण वास्ते यो फलभेज नेकेवायो के मतीरो (अर्थात मत रहो) महारे तो पागड़े पग लिख्योड़ा है ऐ चाल्या।'यूं कहकर बल्लू वहां से चल पड़ा। उसे खूब समझाया कि महाराज का यह आशय कतई नही था। उन्होंने तो प्रेम से भेंट स्वरूप भेजा है। पर अंटीला राजपूत चल पड़ा, सो चल पड़ा। पीछे मुडक़र नही देखा, स्वाभिमानी जो था।बल्लूसिंह चाम्पावत ने राजा द्वारा अपने लिए मतीरा भेजा जाना अपमानजनक समझा। उसे राजा का यह कृत्य उचित नही लगा। इसलिए उसने कह दिया कि राजा संभवत: मुझे यहां रहने देना नही चाहता, इसलिए मैं अब यहां से चल देता हूं। हो सकता है कि बल्लूसिंह ने राजा का अपने प्रति कोई अन्य कृत्य पूर्व में ही ऐसा देख लिया हो जो उसकी गरिमा के अनुकूल ना हो। इसलिए मतीरा को उसने अपने सम्मान के साथ जोड़ लिया। परिणामस्वरूप वहां से भी वह चल पड़ा।कष्ट उठाते-उठाते चाम्पावत पहुंचा अपने गांव देशधर्म के दीवाने और राष्ट्रभक्ति की उदात्त भावनाओं के जीते जगाते प्रमाण बल्लूसिंह ने नागौर से बीकानेर आकर शरण ली थी। पर अब उसे बीकानेर में भी नही रूकना था। इसलिए वहां से चलकर बल्लूसिंह चाम्पावत अपने गांव हरसोलाव में आकर रूका। उसकी देशभक्ति की कहानियों को अब तक उसके पैत्रक गांव के लोगों ने सुना ही था, पर अब तो वह स्वयं ही लोगों के मध्य आ खड़ा हुआ था। लोगों को अपने गांव की मिट्टी के रजकणों में खेले गये बच्चे को जब एक शूरवीर से नायक के रूप में अपने मध्य खड़ा पाया था तो उन्हें भी असीम प्रसन्नता हुई। लोगों में कौतूहल था, जिज्ञासा थी, प्रसन्नता थी अपने नायक से प्रेरणा पाकर वैसा ही बनने और वैसा ही करने की एक लगन थी।जब बल्लूसिंह चाम्पावत अपने गांव में आया तो उसे यहां भी एक चिंता ने घेर लिया। देशधर्म के दायित्वों का निर्वाह करने वाली विभूतियों को अक्सर अपने घर की चिंता नही रहती है, या इसे इस प्रकार कहिये कि वे अपने घर की ओर ध्यान नही दे पाते हैं। जब ध्यान देते हैं तो अक्सर किसी बड़े दायित्व के निर्वाह के लिए उन्हें अपना कत्र्तव्य स्मरण हो आता है। बल्लूसिंह चाम्पावत के साथ भी यही हुआ। अपने गांव हरसोलाव आकर इस शूरवीर ने देखा कि उसकी पुत्री विवाह योग्य हो गयी है। इसलिए उसने अपनी प्रिय पुत्री का विवाह कर देने का मन बनाया। परंतु उसके पास विवाह के लिए आवश्यक और अपेक्षित धन की कमी थी। तब उस स्वाभिमानी बल्लूसिंह ने एक सेठ के यहां अपनी मूंछ का एक बाल गिरवी रखकर उससे अपनी पुत्री के विवाह के लिए अपेक्षित धन प्राप्त किया और पुत्री के विवाह के दायित्व से वह मुक्त हो गया।पुत्री के विवाह के दायित्व से मुक्त होकर बल्लूसिंह सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा। पर विधि का विधान तो कुछ और रचा-बना पड़ा था, इसलिए हो सकता है कि विधि के विधान ने ही उसे अपनी पुत्री के ऋण से पहले मुक्त कर तत्पश्चात मातृभूमि के ऋण से मुक्त करने का ताना-बाना बुना हो ।अमर सिंह की रानी ने जब ये समाचार सुना तो सती होने का निश्चय कर लिया, लेकिन पति की देह के बिना वह वो सती कैसे होती। रानी ने बचे हुए थोड़े राजपूतों सरदारो से अपनें पति की देह लाने को प्रार्थना की पर किसी ने हिम्मत नहीं कि और तब अन्त में उनको अमरसिंह के परम मित्र बल्लुजी चम्पावत की याद आई और उनको बुलवाने को भेजा !चाम्पावत ने मुगल अमरसिंह राठौड़ के शव को कौन शेर आगरा के किले से उठाकर लाये? यह प्रश्न उस समय हर देशभक्त के लिए जीवन मरण का प्रश्न बन चुका था। पूरे हिंदू समाज की प्रतिष्ठा को मुगल बादशाह ने एक प्रकार से चुनौती दी थी कि जिसकी मां ने दूध पिलाया हो वह आये और अपने देश-धर्म के रक्षक अमरसिंह राठौड़ के शव को ले जाए। बादशाह की इस चुनौती में अहंकार भी था और हिंदू समाज के प्रति तिरस्कार का भाव भी था।अमरसिंह राठौड़ का शव दुर्ग के भीतर रखा था, मुख्य द्वार पर और किले की दीवारों पर सुरक्षा व्यवस्था इतनी कड़ी थी कि दुर्ग में कोई पक्षी भी पर नही मार सकता था। इसलिए हिंदू समाज में अपने शूरवीर के शव को लेकर बड़ी बेचैनी थी, और सभी को यह लग रहा था कि चाहे जो हो जाए-पर मां के स्वाभिमान और सम्मान की रक्षा हर स्थिति परिस्थिति में होनी चाहिए।इस स्वाभिमान और सम्मान की सुरक्षार्थ हिंदू ध्वज रक्षकों की खोज का अभियान चल पड़ा। तब उस अभियान के अंतर्गत एक सैनिक अचानक अमरसिंह राठौड़ की पाग लेकर बल्लूसिंह चम्पावत के पास आ धमका।उसने बल्लूसिंह चम्पावत को यह भी बताया कि अमरसिंह राठौड़ का शव आगरे के दुर्ग में रखा है और उसे लाकर उसका अंतिम संस्कार किया जाना हिंदू समाज के सम्मान और आर्य धर्म की प्रतिष्ठा के दृष्टिगत आवश्यक है।सैनिक कहे जा रहा था कि इस समय इस कठिन कार्य को सफलतापूर्वक परिणति तक पहुंचाना आप जैसे शूरवीरों का ही काम है। आपके रहते हमें नही लगता कि मां भारती की गोद शूरवीरों से रिक्त है, आप हैं तो मां भी प्रसन्न है और हम भी प्रसन्न हैं, क्योंकि आपके रहन्ते हमें किसी प्रकार की कोई चिंता नही है।बल्लूजी चाम्पावत ने जैसे ही यह दुखद समाचार सुना तो वह सन्न रह गया। अमरसिंह राठौड़ जैसे शूरवीर योद्घा के समय मुगल बादशाही का ऐसा क्रूरतापूर्ण कृत्य सुनकर चाम्पावत का चेहरा तमतमा गया। उसने आसन्न संकट का सामना करने और मां भारती की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का निश्चय किया।सैनिक से अमरसिंह राठौड़ का दुखद समाचार पाते ही बल्लू चाम्पावत के हृदय में देशभक्ति और स्वामी भक्ति की सूनामी मचलने लगी, उसकी भुजाएं फडक़ने लगीं, उसे विश्वास नही हो रहा था कि ऐसी घटना और वह भी अमरसिंह राठौड़ के साथ हो सकती है? उसने बिना समय खोये निर्णय लिया, तलवार उठायी और एक योद्घा की भांति मां भारती के ऋण से उऋण होने का संकल्प लेकर चल दिया। पर यह क्या? अभी अमरसिंह ने एक पग ही रखा था कि बाहर से एक सेवक दौड़ा हुआ आया। उसने बल्लू चाम्पावत से कहा कि ''महोदय मेवाड़ के महाराणा ने आपको स्मरण करते हुए एक घोड़ा भेंट स्वरूप आपकी सेवा में भेजा है।''बल्लू चाम्पावत की आर्थिक स्थिति उस समय अच्छी नही थी। उसने जब यह समाचार सुना कि मेवाड़ के महाराणा ने एक घोड़ा उसके लिए भेजा है तो उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई, क्योंकि जिस मनोरथ के लिए वह निकल रहा था-उसके लिए घोड़े की नितांत आवश्यकता थी। इसलिए बल्लू चाम्पावत को लगा कि महाराणा के द्वारा भेजे गये घोड़े की शुभसूचना उसी समय मिलना जब इसकी आवश्यकता थी-निश्चय ही एक शुभ संयोग है। उसने अपने लक्ष्य की साधना के लिए मेवाड़ी घोड़े का ही प्रयोग करने का निर्णय लिया। उसके मेवाड़ से आये व्यक्ति को ससम्मान अपने प्रयोजन की जानकारी देकर बताया कि महाराणा जी से हमारा प्रणाम बोलना और उन्हें हमारी विवशता की जानकारी देकर यह भी बता देना कि बल्लू चाम्पावत यदि अपनी लक्ष्य साधना में सफल होकर जीवित लौट आया तो आपके चरणों में उपस्थित होकर अवश्य ही भेंट करेगा और यदि नही लौट सका तो भी संकट के समय अवश्य ही उपस्थित होऊंगा।चल दिया महान लक्ष्य की ओरअब बल्लू चाम्पावत की दृष्टि में केवल आगरा दुर्ग चढ़ चुका था, उसे एक पल भी कहीं व्यर्थ रूकना एक युग के समान लग रहा था। इसलिए बिना समय गंवाये वह आगरा की ओर चल दिया। उसके कई साथी उसके साथ थे। घोड़ों की टाप से जंगल का एकांत गूंजता था। मानो भारत के शेर दहाड़ते हुए शत्रु संहार के लिए सन्नद्घ होकर चढ़े चले जा रहे थे। शत्रु निश्चिंत था। उसे नही लग रहा था कि कोई 'माई का लाल' अमरसिंह राठौड़ के शव को उठाकर ले जाने में सफल भी हो सकता है? यद्यपि बादशाह के सैनिक अमरसिंह राठौड़ के शव की पूरी सुरक्षा कर रहे थे और अपने दायित्व का निर्वाह पूर्णनिष्ठा के साथ कर रहे थे। फिर भी उनमें निश्चिंतता का भाव था, उनके भीतर यह भावना थी कि किले के भीतर आकर शव को उठाने का साहस किसी का नही हो सकता। बस, यह सोचना ही उनकी दुर्बलता थी और उनकी सुरक्षा व्यवस्था का सबसे दुर्बल पक्ष भी यही था।अमरसिंह राठौड़ का शव दुर्ग के बीचों-बीच रखा था। उधर बल्लूजी चाम्पावत तीव्र वेग के साथ किले की ओर भागा आ रहा था। उसके दल के घोड़ों के वेग के सामने आज वायु का वेग भी लज्जित हो रहा था। हवा आज उसका साथ दे रही थी और बड़े सम्मान के साथ उसे मार्ग देती जा रही थी।अचानक मुगल सैनिकों को लगा कि एक तीव्र वायु का झोंका उनके दुर्ग के द्वारों को धक्का देकर भीतर प्रवेश कर गया है। इससे पूर्व कि वह उस वायु के वेग को समझ पाते कि यह कोई हवा ना होकर मां भारती का सच्चा सपूत बल्लूसिंह चाम्पावत है, बल्लू अपने स्वामी के शव के पास मुगल सैनिकों को चकमा देकर दुर्ग में प्रवेश कर चुका था। मुगल सैनिक दुर्ग में उसके प्रवेश की कहानी को समझ नही पाये और इससे पहले कि वह उसे शव के पास घेर पाते भारत का यह शेर अपने स्वामी को एक झटके के साथ उठाकर अपने घोड़े सहित दुर्ग की दीवार की ओर लपका। मुगल सैनिकों ने दुर्ग के द्वार की ओर मोर्चा लेना चाहा, पर बल्लू दुर्ग के द्वार की ओर न बढक़र किले की दीवार पर घोड़े सहित जा चढ़ा और मुगलो को काटते हुए वहां से उसने घोड़े को नीचे छलांग लगवा दी।यह दृश्य देखकर मुगल बादशाह के मुंह से निकल पड़ा :-या तो यह अल्लाह है या शैतान है वैसे देखा जाये तो अल्लाह सै तो महान ही थे बल्लुजी ।अपने साथियों सहित शव को नागौर लाने में सफल रहा।इस कहानी को कुछ लोगों ने इस प्रकार भी कहा है कि राठौड़ के शव को तो बल्लू ने अपने सैनिकों को दे दिया और वो किले के अन्दर युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त हो गये।सती ने बल्लू जी को आशीर्वाद दिया- 'बेटा ! गौ,ब्राह्मण,धर्
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