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राजपुत और शराब मांसाहार



#राजपूत शब्द सुनते ही वो तेजस्वी रोबीला चेहरा और प्राण प्रणके साथ खड़े देव तुल्य मानुष की छवि दिमाग के किसी कोने में उमड़ने को उतावली होती है,. पर क्या ये छवि है?? हमारी ये बात सोचने की है ??आज हमारी छवि सिवाई शराब खोरी या मासाहार के पीछे अपना वर्तमान भूत और भविष्य लुटा देने को आतुर दिखाई देते है . और इन सब के लिए हम जिम्मेदार मानते है कुछ हद तक हमारी पूर्व पीढ़ी को ? . माफ़ करना दोस्तों इसके लिए न कोई पूर्वज जिम्मेदार है न ही कोई दुसरा बल्कि केवल हम और हम ही जिम्मेदार है। क्या ये सचमुच हमारा आहार है? और इसके बारे में शोध करने का निर्णय किया हमारे आदि ग्रंथो से और सच सामने आया वो चौंकाने वाला था।
मदिरा माँस हमारा पारम्परिक भोजन नही था केवल 400 साल पहले ये बुराई क्षत्रियो के अंदर घुसी है
क्षत्रिय रक्षक होता था लेकिन जब से वो भक्षक बना है, डूब गया है। इस बात पर हमे विचार करना चाहिए। हमारे प्राचीन शास्त्र भी यही कहते हैं कि शराब सेवन और माँस भक्षण क्षत्रिय समाज में कभी प्रचलित नहीं था।
#अशोक वाटिका में सीता जी हनुमान जी से कहती है - "भगवान राम जंगल में शिकार करते हैं, कहीं वे माँस का सेवन तो नहीं करने लगे हैं?" इसके उत्तर में हनुमान जी कहते हैं - -
"कोई भी रघुवंशी न तो माँस खाता है और न मधु का सेवन करता है। फिर भगवान श्री राम उन वस्तुओं का सेवन क्यों करते? वे सदा चार समय उपवास करके पांचवें समय शास्त्र विहित जंगली फल, मूल और नीवार आदि का भोजन करते हैं। " - - - वाल्मीकि रामायण, सुंदरकांड श्लोक - - 36
#महाभारत के युद्ध में भी जितने लोगों ने प्रतिज्ञाएं की है, उन सभी ने यह कहा है कि यदि प्रतिज्ञा पूरी नहीं करे तो उनकी वह दुर्गति हो जो मदिरा पीने वाले की होती है। इससे स्पष्ट है कि उस काल में भी क्षत्रियों में मदिरा-माँस का सेवन नहीं था। भीष्म पितामह ने तो स्पष्ट कहा है कि मदिरा-माँस का सेवन धूर्तो द्वारा प्रचलित किया गया है। इस संबंध में महाभारत के निम्न अंश यहां प्रस्तुत करना चाहूंगा।
#दुसरा प्रसंग हम महाभारत से लेते है क्या कही भी इस बात का जिक्र अता है क्या की दुर्योधन ने कही भी मासाहार ग्रहण किया शायद दुर्योधन से कुटिल चरित्र किसी पांडु पुत्र का नहीं था तो उनकी बात तो है अलग जब गलत चरित्र ने ही नहीं खाया तो दुसरो की बात ही क्यों करे फिर भी हम देखते है बहुत से प्रसंगो में इसकी निंदा की गयी है। जैसे अर्जुन ने अपने पुत्र अभिन्यु के मरनेके बाद जयद्रथ वध के समय प्रतिघा करता है की जो पाप पर स्त्री गमन सुरा पान मांसाहार से धर्म की मर्यादा तोड़ने से जो दुर्गति प्राप्त होती है वो मेरी हो अगर में जयद्रथ वध नहीं कर पाया तो (दोर्न्न पर्व श्लोक 52 -53 ) ऐसी ही प्रतिज्ञा तिर्ग्तराज के वध के समय भी अर्जुन करते है (ड्रोन पर्व 29 से 34)।
#भीष्म_पितामह ने भी कड़े शब्दों में इसकी निंदा की है की सुरा से स्पर्श किया हुया अन्न भी ग्रहण करने योग्य नहीं है (शांति पर्व सर्ग 159 श्लोक 32 )
#भगवान्_श्री_कृष्ण ने भी आरण्य पर्व के 14 सर्ग के 7 श्लोक में कहा है की जो मनुष्य शारब सेवन पर स्त्री गमन जुवा और मांसाहार करता है उसका श्री यानि लक्ष्मी नस्ठ ही जाती है और भी बहुत से प्रसंग है जिनसे ये सिद्ध होता है की हमारे पूर्वजो ने इसको आहार नहीं माना था।
#गौरक्षनाथ ने कहा है
अवधू मांस भखंत, दया धर्म का नाश।
मद पीवत तहां प्राण निराश।।
भांग भखंत ज्ञान खोवंत।
जम दरबारी ते प्राणी रोवंत।।
#गौतम_बुद्ध ने कहा है - - - -
"प्राणियों का हनन करने से कोई आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों की हिंसा न करने से उसे आर्य कहा जाता है। " (धम्मपद से )
#श्री_भर्तहरि कहते हैं - - - -" बुरे मंत्रियों से राजा का नाश हो जाता है, कुसंगति से तपस्वी भ्रष्ट हो जाता है, बहुत लाड प्यार से पुत्र बिगड़ जाता है, विद्या न पढने से ब्राह्मण का और कुपुत्र से कुल का नाश हो जाता है। दुर्जनों की सेवा करने से शीलता और मदिरा पीने से लज्जा जाती रहती है। (नीति शतक 62)
#कबीर_दास जी ने कहा है - - - -
बकरी खाती पात है, ताकी काढत खाल।
जो नर बकरी खात है, तिनका कौन हवाल।।
काम, क्रोध, मद लोभ विसारो, सील संतोष छिमा सत धारो।
मध मांस मिथ्या तजि डारो, ज्ञान घोडे़ असवार भ्रम से न्यारा है।।
कर नैनों दीदार महल में प्यारा है।
#मांस_व_मदिरा...........
*कंद-मूल खाने वालों से*
मांसाहारी डरते थे।।
*पोरस जैसे शूर-वीर को*
नमन 'सिकंदर' करते थे॥
*चौदह वर्षों तक खूंखारी*
वन में जिसका धाम था।।
*मन-मन्दिर में बसने वाला*
शाकाहारी *राम* था।।
*चाहते तो खा सकते थे वो*
मांस पशु के ढेरो में।।
लेकिन उनको प्यार मिला
' *शबरी' के जूठे बेरो में*॥
*चक्र सुदर्शन धारी थे*
*गोवर्धन पर भारी थे*॥
*मुरली से वश करने वाले*
*गिरधर' शाकाहारी थे*॥
*पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम*
चोटी पर फहराया था।।
*निर्धन की कुटिया में जाकर*
जिसने मान बढाया था॥
*सपने जिसने देखे थे*
मानवता के विस्तार के।।
*नानक जैसे महा-संत थे*
वाचक शाकाहार के॥
*उठो जरा तुम पढ़ कर देखो*
गौरवमय इतिहास को।।
*आदम से आदी तक फैले*
इस नीले आकाश को॥
*दया की आँखे खोल देख लो*
पशु के करुण क्रंदन को।।
*इंसानों का जिस्म बना है*
शाकाहारी भोजन को॥
*अंग लाश के खा जाए*
क्या फ़िर भी वो इंसान है?
*पेट तुम्हारा मुर्दाघर है*
या कोई कब्रिस्तान है?
*आँखे कितना रोती हैं जब*
उंगली अपनी जलती है
*सोचो उस तड़पन की हद*
जब जिस्म पे आरी चलती है॥
*बेबसता तुम पशु की देखो*
बचने के आसार नही।।
*जीते जी तन काटा जाए*,
उस पीडा का पार नही॥
*खाने से पहले बिरयानी*,
चीख जीव की सुन लेते।।
*करुणा के वश होकर तुम भी*
गिरी गिरनार को चुन लेते॥
लेखक :-राजेन्द्र सिह राठौड़

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