पाकिस्थान बनने का वास्तविक कारण
[ प्रस्तुत लेख का सारांश यह है कि 1947 में उन क्षेत्रों को भारत से अलग कर दिया गया जहाँ कांग्रेस 1937 के चुनाव में कमजोर थी | ताकि बाँकी देश में कांग्रेस का बहुमत रहे, गद्दी के लिए गाँधी-नेहरु और जिन्ना ने देश को तोड़ा जिसमें जिन्ना से अधिक दोष नेहरु का था |
गाँधी की कथनी तो विभाजन के विरोध में थी किन्तु करनी सदैव नेहरु के पक्ष में रही जो गांधी की विचारधारा से रत्ती भर भी सहमत नहीं थे | सारे अच्छे और बुरे नेता अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार चलते थे, गांधी तो "महात्मा" थे अतः अपनी विचारधारा पर कभी नहीं चले | अहिंसा के पुजारी ने भगतसिंह को किसकी हत्या के आरोप में फांसी की सजा का समर्थन किया ? प्रथम असहयोग आन्दोलन वापस लिया क्योंकि चौरी-चौरा में पुलिस हत्याकाण्ड के विरोध में जनता भी उग्र हो गयी किन्तु 1942 का आन्दोलन तो अधिक हिंसक था -- उसे वापस लेते तो लोग जेल तोड़कर घुस जाते और महात्मा का कीमा बना देते | नोआखाली में सारे हत्यारे मुसलमान थे किन्तु गांधी जी केवल हिन्दुओं के क्षेत्रों में घूमकर उनको अत्याचार सहने की सीख देते रहे, जबतक कि उनको हिन्दुओं द्वारा पीटकर भगाया नहीं गया (इतिहासकार नहीं बतायेंगे)| गांधी जी की विचारधारा का सबसे अच्छा सारांश उनकी "हिन्द स्वराज" पुस्तिका में है जो आज भी हर भारतीय को पढ़नी चाहिए, किन्तु गाँधी जी ने अपनी ही विचारधारा का कभी सच्चाई से पालन नहीं किया, महात्मा कहलाने के लोभ में दुरात्माओं के गिरोह में फँसे रहे जिसके अगुआ नेहरु थे | ]
जिन्ना ने भारत का विभाजन कराया और साम्प्रदायिक दंगे भड़काए यह सत्य है | किन्तु यह भी सत्य है कि वह सेक्युलर था, उसने कभी नमाज तक सीखने का प्रयास नहीं किया और इस्लाम में वर्जित मांस खाता था | 1937 के चुनाव तक वह खुलकर पाकिस्तान की माँग का विरोध करता था, किन्तु उस चुनाव का परिणाम आते ही कांग्रेस ने उसके साथ ऐसा भयंकर विश्वासघात किया कि उसे विश्वास हो गया कि पाकिस्तान नहीं बना तो अंग्रेजों के जाने के बाद मुस्लिमों के साथ कांग्रेस अच्छा बर्ताव नहीं करेगी |
25 दिसम्बर 2016 को मैंने फेसबुक पर निम्न लेख अंग्रेजी में डाला था जिसका Google Translate द्वारा हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है | Google Translate का अनुवाद इतना मजेदार है कि इसे सुधारने का मैंने प्रयास नहीं किया ताकि Google Translate का मजा आपलोग भी चख सकें | केवल उन स्थलों पर मैंने ब्रैकेट में सही अर्थ जोड़ दिया है जहाँ Google Translate ने बिलकुल गलत अर्थ दिया है | गलतियों के बावजूद मैं गूगल को धन्यवाद देता हूँ जिसने विदेशी होने के बावजूद राष्ट्रभाषा फरजर भभाग अथवा मानव संसाधन भकास मन्त्रालय से बेहतर कार्य हिन्दी के लिए किया है |
निम्न लेख लिखते समय रजनी पाल्मे दत्त की 1946 वाली पुस्तक मेरे पुस्तकालय में बची हुई थी जिसमें से आंकड़े निम्न लेख में लिए गए थे , किन्तु एक छात्र की कृपा से मेरे पूरे पुस्तकालय को 2016 की बरसात तक दीमक चाट गया, बहुत से ठेलों पर लादकर कूड़ा फिंकवाना पड़ा | सत्तर वर्ष पुरानी पुस्तक मेरी देखरेख में सुरक्षित रही, छात्र के हवाले करते ही मेरी जीवन भर की पूँजी स्वाहा हो गयी (उसे मैंने पहले ही कह दिया था कि तुम्हारी कुण्डली में गुरुहत्या का योग है किन्तु मेरी कुण्डली में दीर्घायु होना लिखा है , देखना है किसकी कुण्डली बलवान है !!)
[ अंग्रेजों, गाँधी और नेहरु जैसों की करतूतों का भण्डाफोड़ करने वाले अनेक मूल दस्तावेजों को इस ग्रन्थ "India Today (1947)" में हूबहू उद्धृत किया गया है, जैसे कि उनलोगों के मूल पत्र | सरकारी इतिहासकारों के झूठों का सुन्दर पर्दाफाश इस ग्रन्थ में मिलेगा :--
http://pphbooks.net/product_info.php/cPath/61/products_id/103
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लेखक "रजनी पाल्मे दत्त" ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख विचारक थे, उनकी माँ स्वीडन के प्रधानमन्त्री ओलेफ पाल्मे के परिवार की थी और पिता बंगाली ब्राह्मण थे , भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के प्रकाशक PPH ने इस ग्रन्थ को 2007 ईस्वी में पुनः प्रकाशित किया किन्तु मुझे पता नहीं था क्योंकि 36 वर्ष पहले मैंने कम्युनिस्टों की किताबें पढ़नी छोड़ दी थी, आज ही मुझे पता चला है | इस प्रकाशक PPH के वेबसाइट पर केवल वामपन्थियों का कचड़ा मिलेगा, किन्तु यह ग्रन्थ दुर्लभ दस्तावेज है जिसे अंग्रेजों ने 1940 में छपते ही प्रतिबन्धित कर दिया था, 1947 में विस्तारित करके पुनः छपा जो अब 250 रुपयों में उपलब्ध है | ]
पुराने लेख का लिंक और गूगल ट्रांसलेट प्रस्तुत है :--
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https://www.facebook.com/vinay.jha.906/posts/1076324719045498
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आज एम ए जिन्ना का जन्मदिन है। यह उच्च समय है कि हमें नेहरूवियों द्वारा झूठे प्रचार से बाहर आना चाहिए।
एम ए जिन्ना विभाजन के लिए ज़िम्मेदार नहीं था, वास्तविक जिम्मेदारी कांग्रेस और सामान्य रूप से जवाहरलाल नेहरू पर थी। 1937 में प्रांतीय चुनावों में, एम ए जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन में गईं। नतीजतन, मुस्लिम लीग मुस्लिम वर्चस्व वाले राज्यों में बुरी तरह खो गई: उसने बाद में पश्चिमी पाकिस्तान में एक सीट जीती, और पूर्वी पाकिस्तान में शून्य, लेकिन उत्तर प्रदेश में कई सीटें मिलीं (आगरा और औध के संयुक्त प्रांत, जो बाद में उत्तर प्रदेश बन गए) ।
लेकिन चुनाव के बाद, सत्ता भूख लगी कांग्रेस के गठबंधन ने गठबंधन तोड़ दिया और विधायिका के अनुपात के अनुसार मुस्लिम लीग विधायकों को मंत्रालय में स्वीकार करने से इनकार कर दिया। एम ए जिन्ना ने कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को लिखित में शिकायत की, लेकिन उत्तरार्द्ध ने अपमानजनक जवाब दिया कि केवल उन मुस्लिम लीग विधायकों को मंत्रालय में शामिल किया जा सकता है जो मुस्लिम लीज से इस्तीफा दे और कांग्रेस में शामिल हो। एम ए जिन्ना को वापस ले लिया गया था ("taken aback" का गलत अनुवाद किया है -- सही अर्थ ही "जिन्ना चकित रह गए")!
जवाहरलाल नेहरू के इस पत्र को रजनी पाल्मे दत्त द्वारा "इंडिया टुडे" किताब में पुन: प्रस्तुत किया गया था (इस महान कार्य को अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित किया गया था, लेकिन बाद में इसे पीपीएच द्वारा पुनर्मुद्रित किया गया: नई दिल्ली में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस; यह आधुनिक इतिहास पर सबसे अच्छा काम है और सभी प्रमुख मुद्दों पर गांधी-नेहरू के पाखंड का पर्दाफाश किया)।
एम ए जिन्ना इस बात पर विश्वास नहीं कर सका कि कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के नेता इतने आधार ("mean" = नीच) और विश्वासघाती हो सकते हैं! एम ए जिन्ना ने कांग्रेस के साथ अपने समझौते के कारण कट्टरपंथी मुस्लिमों का विरोध किया था, और एम ए जिन्ना ने खुद को कमजोर कर दिया था, इसलिए एम ए जिन्ना और मुस्लिम लीग स्थायी रूप से समाप्त हो जाने के बाद कांग्रेस ने अपनी पीठ में मारा (stabbed = चाकू मारा) था!
"पाकिस्तान" का नारा पहले से ही हवा में था लेकिन एम ए जिन्ना ने इसका समर्थन नहीं किया था और पाकिस्तान के लिए इस आंदोलन से सफलतापूर्वक मुस्लिम लीग को दूर रखा था। लेकिन कांग्रेस द्वारा इस विश्वासघात के बाद, जिसमें गांधी जी ने पूर्व चुनाव संयुक्त घोषणापत्र को लागू करने में हस्तक्षेप नहीं किया था, एमए जिन्ना ने पाया कि कठोर रुख लेना ही उनके लिए दो उद्देश्यों को पूरा करने के लिए छोड़ दिया गया था: खुद और उनकी पार्टी को बचाने के लिए राजनीतिक रूप से, और सामान्य रूप से मुस्लिम हितों को बचाने के लिए। उन्होंने महसूस किया कि अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद, विश्वासघात के इस सबूत के कारण कांग्रेस द्वारा धर्मनिरपेक्षता के वादे पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। 1937 के बाद, एम ए जिन्ना ने गांधी-नेहरू के शब्दों में कभी विश्वास नहीं किया।
यह केवल एक उदाहरण है। गांधी-नेहरू द्वारा सैकड़ों ऐसे विश्वासघाती और पाखंडी कृत्य हैं, जिनमें से कई मूल दस्तावेजी साक्ष्य की मदद से रजनी पाल्मे दत्त द्वारा उजागर किए गए थे। यदि एम ए जिन्ना कम से कम दस वर्षों तक जीवित रहे, तो पाकिस्तान पंजाबियों, सिंधियों और पथानों के प्रवेश के कारण भारत से बहुत दूर (ahead = आगे) एक धर्मनिरपेक्ष और विकसित राष्ट्र बन गया होगा।
1937 में ग्यारह प्रांतों में प्रांतीय चुनाव 1935 के भारत सरकार अधिनियम के अनुसार आयोजित किए गए थे (22 अक्टूबर 193 9 को वाइसराय ने कांग्रेस प्रांतीय सरकारों को सभी प्रांतों में इस्तीफा देने को कहा क्योंकि कांग्रेस ने जर्मनी पर युद्ध घोषित करने के लिए वाइसराय के फैसले का समर्थन नहीं किया, हालांकि गांधी जी चाहते थे यह)। 1937 के चुनावों में, मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए 64 आरक्षित सीटों में से 27 जीती, जबकि कांग्रेस ने संयुक्त प्रांतों (प्रांत) की विधानसभा में कुल 228 में से 133 के साथ स्पष्ट बहुमत जीता। सिंध में, मुस्लिम लीग मुस्लिमों के लिए 34 आरक्षित सीटों में से शून्य हो गई। संयुक्त पंजाब में, मुस्लिम लीग ने कुल 175 में से 1 सीट जीती। लेकिन असम में, मुस्लिम लीग 10 और बॉम्बे में 18 सीटें जीतीं। संयुक्त बंगाल में, मुस्लिम लीग ने 37 सीटें जीतीं। सभी प्रांतीय असेंबली में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग 106 और कुल 1585 में कांग्रेस 707 थी। मुस्लिम लीग के पास संयुक्त प्रांत में कांग्रेस के साथ पूर्व चुनाव चुनाव गठबंधन था, जिस पुस्तक के बारे में मैंने पहले ही उल्लेख किया है, लेकिन समर्थक कांग्रेस इतिहासकार इस तथ्य पर चुप रहेंगे। कोई अखिल भारतीय गठबंधन नहीं था। चुनाव के बाद, जिन्ना कांग्रेस के साथ अखिल भारतीय गठबंधन चाहते थे, लेकिन मुस्लिम लीग के साथ अखिल भारतीय गठबंधन बनाने की बजाय, कांग्रेस ने संयुक्त प्रांत में गठबंधन तोड़ दिया। कांग्रेस ने पूरे भारत में केवल 44.6% विधानसभा सीटें जीती जबकि मुस्लिम लीग ने 6.7% जीता, दोनों ने 51.3% जीता: स्पष्ट बहुमत। मुस्लिम लीग के साथ अखिल भारतीय गठबंधन के इस प्रस्ताव के दीर्घकालिक प्रभाव को देखने में कांग्रेस असफल रही। कांग्रेस ने मुसलमानों के लिए 25 आरक्षित सीटें जीतीं, जिनमें से 15 एनडब्ल्यूएफपी में (साथ ही 4 गैर-आरक्षित, कांग्रेस द्वारा कुल 50 में से 1 9)।
1937 के चुनावों में, कांग्रेस 11 प्रांतों में से 5 में बहुमत हासिल करने में नाकाम रही: - असम, बंगाल, एनडब्ल्यूएफपी, पंजाब और सिंध। असम के छोटे प्रांत को छोड़कर, इन सभी प्रांतों जहां कांग्रेस हार गई थी 1947 में पाकिस्तान (पूर्वी पंजाब और पश्चिम बंगाल को छोड़कर) पाकिस्तान गई थी। लेकिन मुस्लिम लीग ने उन पांच प्रांतों में अपनी कुल सीटों में से केवल 45% जीती, और उनमें से कई गैर-पाकिस्तान क्षेत्रों (असम में 10, पश्चिम बंगाल में कई) में थे। इस प्रकार, यह देखना आसान है कि अगर कांग्रेस (गलत ; "कांगेस" के बदले "पाकिस्तान" पढ़ें) को भारत से अलग किया जा सकता है तो कांग्रेस केवल अखिल भारतीय बहुमत प्राप्त कर सकती है। 1937 में, मुस्लिम लीग केवल बंगाल में ही सत्ता में आ सकती थी, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन में सहयोगी के रूप में, जबकि कांग्रेस एनडब्ल्यूएफपी में सत्तारूढ़ गठबंधन में जूनियर पार्टनर थी।
1930 के लीग सत्र में, मुहम्मद इकबाल ने पाकिस्तान की जरूरत के लिए बात की थी। लेकिन जिन्ना ने इसका विरोध किया। 1937 में चुनावी हार के बाद ही जिन्ना को बहुमत हासिल करने के लिए पाकिस्तान की जरूरत महसूस हुई, क्योंकि उस क्षेत्र में कांग्रेस कमजोर थी, लेकिन इकबाल द्वारा दृढ़ विश्वास के कारण जिन्ना के इस रूपांतरण को भी संभव था जब कांग्रेस ने जिन्ना के गठबंधन की पेशकश को अस्वीकार कर दिया 1916 लखनऊ समझौते का तरीका। यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन्ना इंग्लैंड में एक लंबी राजनीतिक सौहार्द (wilderness = बनवास) से लौट आई थीं और मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित करने के उनके गंभीर प्रयास केवल 1937 के बाद शुरू हुए थे। नेहरू नेतृत्व वाली कांग्रेस भविष्य को नहीं रोक (foresee = पूर्वाभास) सकती थी, अन्यथा यह जिन्ना के गठबंधन की पेशकश को स्वीकार कर लेती: 1937 में 99% मुस्लिम पाकिस्तान के पक्ष में नहीं थे।
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(इस लेख में अब जोड़ रहा हूँ :--)
चुनाव-पूर्व तालमेल को तोड़कर आज भाजपा यदि NDA के घटक दलों को केन्द्र सरकार से निकाल दे तो इसे नैतिक विश्वासघात ही कहा जाएगा, भले ही पूर्ण बहुमत के कारण भाजपा की सरकार फिलहाल बची रहे और कुछ भाजपाइयों को मन्त्री बनने का "सौभाग्य" मिल जाये, भले ही दूरगामी परिणाम अशुभ हो !
गाँधी-नेहरु के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने 1937 में जिन्ना के साथ जो उपरोक्त नैतिक विश्वासघात किया उससे बहुत से कांग्रेसी भी नाराज हो गए थे और अगले वर्ष गाँधी जी द्वारा भयंकर विरोध के बावजूद उनके वैचारिक विरोधी सुभाष चन्द्र बसु को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद आमरण अनशन की धमकी देकर गाँधी जी ने सुभाष बाबू को कांग्रेस से निकलने के लिए विवश कर दिया, अन्यथा पूरी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से जो आज़ाद हिन्द फौज बनती वह अंग्रेजों और उनके देसी चमचों का क्या हाल करती इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है, हालाँकि हमारे इतिहासकारों को ये बातें नहीं दिखती | इतिहासकारों पर आंख मूँदकर भरोसा मत करें, तथ्यों का अपनी बुद्धि से निष्पक्ष मूल्याँकन करने का अभ्यास करें |
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(इस लेख में अब जोड़ रहा हूँ :--)
चुनाव-पूर्व तालमेल को तोड़कर आज भाजपा यदि NDA के घटक दलों को केन्द्र सरकार से निकाल दे तो इसे नैतिक विश्वासघात ही कहा जाएगा, भले ही पूर्ण बहुमत के कारण भाजपा की सरकार फिलहाल बची रहे और कुछ भाजपाइयों को मन्त्री बनने का "सौभाग्य" मिल जाये, भले ही दूरगामी परिणाम अशुभ हो !
गाँधी-नेहरु के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने 1937 में जिन्ना के साथ जो उपरोक्त नैतिक विश्वासघात किया उससे बहुत से कांग्रेसी भी नाराज हो गए थे और अगले वर्ष गाँधी जी द्वारा भयंकर विरोध के बावजूद उनके वैचारिक विरोधी सुभाष चन्द्र बसु को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद आमरण अनशन की धमकी देकर गाँधी जी ने सुभाष बाबू को कांग्रेस से निकलने के लिए विवश कर दिया, अन्यथा पूरी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से जो आज़ाद हिन्द फौज बनती वह अंग्रेजों और उनके देसी चमचों का क्या हाल करती इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है, हालाँकि हमारे इतिहासकारों को ये बातें नहीं दिखती | इतिहासकारों पर आंख मूँदकर भरोसा मत करें, तथ्यों का अपनी बुद्धि से निष्पक्ष मूल्याँकन करने का अभ्यास करें |
अपने बच्चों को सिखा दें कि परीक्षाओं में वही बात लिखें जो परीक्षकों को रास आये, परन्तु दिमाग में सच्चाई ही रखें | दिमाग विधाता की सबसे अनमोल कृति है जिसकी एक कोशिका भी संसार के सारे वैज्ञानिक मिलकर नहीं बना सकते, ऐसे अनमोल दिमाग में भाड़े के लेखकों का भूसा मत रखें क्योंकि मरने के बाद दुनिया भर का भूसा दुनिया में ही छूट जाएगा किन्तु दिमाग में जो ज्ञान और संस्कार है वह साथ जाता है , वही आपकी असली पूँजी है |
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(एक कमेंट के उत्तर में नीचे जोड़ा है :-- )
यह सत्य है कि पाकिस्तान नहीं बनता तो मुस्लिमों की संख्या 1947 में पूरे अविभाजित देश की 22% रहती, किन्तु यदि सारे मुस्लिम एकजुट होकर मुग़ल साम्राज्य पुन: बनाने का प्रयास करते तो शेष सारे हिन्दू भी किसी न किसी शिवाजी के पीछे इकट्ठे हो जाते और चीन की तरह अविभाजित भारत में भी जनसंख्या विधेयक बना दिया जाता ताकि कोई समुदाय 22% से बढकर 32% न हो सके, तब कांग्रेस जैसी सेक्युलर पार्टियाँ उड़न-छू हो जातीं | विभाजन के समय सेना भारत के पक्ष में थी, जनरल करियप्पा जैसे वरिष्ठतम भारतीय सेनापतियों ने सुझाव भी दिया था कि पूरी सेना भारत के पास ही रहे, पाकिस्तान को नयी सेना बनानी चाहिए, किन्तु गाँधी-नेहरु ने सेना का भी विभाजन करा दिया | इसका सीधा अर्थ यह है कि गाँधी-नेहरु देश का विभाजन नहीं कराते तो सेना हिन्दुओं के ही पक्ष में रहती |
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(एक कमेंट के उत्तर में नीचे जोड़ा है :-- )
यह सत्य है कि पाकिस्तान नहीं बनता तो मुस्लिमों की संख्या 1947 में पूरे अविभाजित देश की 22% रहती, किन्तु यदि सारे मुस्लिम एकजुट होकर मुग़ल साम्राज्य पुन: बनाने का प्रयास करते तो शेष सारे हिन्दू भी किसी न किसी शिवाजी के पीछे इकट्ठे हो जाते और चीन की तरह अविभाजित भारत में भी जनसंख्या विधेयक बना दिया जाता ताकि कोई समुदाय 22% से बढकर 32% न हो सके, तब कांग्रेस जैसी सेक्युलर पार्टियाँ उड़न-छू हो जातीं | विभाजन के समय सेना भारत के पक्ष में थी, जनरल करियप्पा जैसे वरिष्ठतम भारतीय सेनापतियों ने सुझाव भी दिया था कि पूरी सेना भारत के पास ही रहे, पाकिस्तान को नयी सेना बनानी चाहिए, किन्तु गाँधी-नेहरु ने सेना का भी विभाजन करा दिया | इसका सीधा अर्थ यह है कि गाँधी-नेहरु देश का विभाजन नहीं कराते तो सेना हिन्दुओं के ही पक्ष में रहती |
लेखक :- विनय झा
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